ऐ मेरे शहर,
कैसे हो तुम?
मुझे याद हो तुम…
भूला नहीं हूँ मैं तुम्हे।
हाँ अब ज्यादा आ नहीं पाता,
नये और बड़े शहरों में रहता हूँ,
या यूं कहें नौकरी करता हूँ…
ऐ मेरे शहर,
कभी लौट आऊँगा तुम्हारे पास वापिस।
हमेशा के लिये?
क्या पता, शायद…
वैसे हमेशा के लिये बाँध नहीं पाया कोई अब तक,
ना शहर, ना लोग।
सिवाये यादों ने, हजारों यादों ने,
यादों ने तुम्हारी, शहरों की, लोगों की।
ऐ मेरे शहर,
आ जाऊँगा फिर,
शायद…. आराम करने।
तब तक तुम्हारे किनारे पर नहर पूरी बन जायेगी,
फिर टहलूँगा उसी के किनारे,
जैसे टहलता हूँ बडे शहरों में झीलों, तालाबों के किनारे।
पता नहीं वो पुराने दोस्त,
जिन्होनें दोस्ती करवाई थी तुमसे, अब मिलेंगे या नहीं?
या लौटने पर इस बार,
तुम मिलवाओगे नये दोस्तों से?
ऐ मेरे शहर,
हो सकता है, तुम्हे लगे कि मैं ना लौटूँ।
हो भी सकता है…
पर भूलना मत मेरा घर तो तुम में ही है।
पँछी कितनी दूर भी उड़े,
शाम ढलते घोंसले में लौट ही आता है,
मुझे भी यकीन है मैं लौट आऊँगा।
या हो सकता है,
ये दिलासा भर है,
तुम्हारे लिये भी ,मेरे लिये भी।
ऐ मेरे शहर,
एक और बात बतानी है आज कि,
तुम अब तक मेरे लिये शहर ही रहे।
कि जब कि मैं इतने बडे शहरों में रहा,
क्यूँकि मैं आया था तुममें, शहर में, बसने,
कभी किसी दिन एक कस्बे से….