अज्ञान

अनन्त तक ‘भरे’ हुए खालीपन में,

चहुँ ओर ‘रौशन’ अँधियारे में,

महसूस करता हूँ ‘घिरा’ हुआ अकेलापन,

मैं ‘अज्ञान’ आत्मा |

भुलाकर अलौकिक अन्दर में,

खोजता लौकिक बाहर में,

होता हुआ सुख में दुखी मन,

मैं ‘अज्ञान’ आत्मा |

उठूँगा जब ‘जागती’ नींद में,

पा लूँगा ‘प्राप्त’ चीज में,

बन जाऊँगा जब हटेगा ‘ज्ञानी’ अज्ञानपन,

मैं ‘ज्ञान’ आत्मा |